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संथाल व कूका विद्रोह तथा वासुदेव बलवंत फड़के का मुक्ति संग्राम

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संथाल विद्रोह

इतिहास में संथाल विद्रोह या पहाड़ी विद्रोह का विवरण मिलता है। इस विद्रोह में प्रमुख रूप से बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के भागलपुर जिलों की बात सामने आती है। 1855 में संथाल में वहां के लोगों ने सशस्त्र विद्रोह किया। इसके पीछे का एक कारण जहां अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र पर अतिक्रमण था, तो वहीं दूसरा कारण नील की खेती था। वही नील की खेती जिसके कारण बाद में पूरे बंगाल और बिहार ने अंग्रेजों से लोहा लिया। इस विद्रोह में सैकड़ों संथालवासियों ने अंग्रेजों पर हमला बोलकर उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया था। इसलिए यह पूरा आंदोलन असहयोग के साथ-साथ सशस्त्र विरोध से भी भरा हुआ था।

कूका विद्रोह

अंग्रेज ये तो चाहते थे कि उनके विरुद्ध कोई सशस्त्र आंदोलन न हो, लेकिन वो अत्याचार करना भी नहीं छोड़ते थे। जब तक गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत नहीं आये, तब तक अंग्रेजों के पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो लोगों को अहिंसात्मक तरीके से आंदोलन करने के लिए प्रेरित करता। जिससे अंग्रेजों का अत्याचार और आंदोलन दोनों के एक साथ चलने पर भी ब्रिटेन की महारानी को कोई समस्या नहीं होती। इसी कारण समय-समय पर अंग्रेजों को इन अत्याचारों की सजा अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी। ऐसा ही एक आंदोलन था 1871 में हुआ कूका विद्रोह। इस विद्रोह में सिखों की नामधारी परंपरा के 7 लाख से अधिक सिख वीर शामिल थे।

गुरु रामसिंह जी के नेतृत्व में हुए कूका विद्रोह के प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि इन क्रांतिकारियों ने उस समय के पंजाब को 22 जिलों में बांटकर अपनी सामानांतर सरकार चलाना शुरू कर दिया था। अंग्रेजों को गाय का मांस बहुत अच्छा लगता था। इस कारण उन्होंने गौ वध के लिए पंजाब में भी कई स्थानों पर बूचड़खाने खुलवा रखे थे। गुरु बालक सिंह और उनके शिष्य गुरु रामसिंह के नेतृत्व में नामधारी परंपरा के सिखों ने इसका विरोध करने का निर्णय लिया। इस कूका दल ने 15 जून को पहले अमृतसर और फिर एक महीने बाद रायकोट में बूचड़खानों पर धावा बोलकर गायों को स्वतंत्र करवा लिया। इसके बाद यह क्रम आगे बढ़ता गया, लेकिन साथ ही अंग्रेजों का दमन चक्र भी शुरू हो गया।

अंग्रेज कूका विद्रोह में शामिल सिखों को सरेआम फांसी देते थे। अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इससे सिख डर जायेंगे। लेकिन जिनका जन्म ही देश के लिए बलिदान होने के उद्देश्य से हुआ हो, वो मौत से कैसे डर सकते थे। अंग्रेज इस आंदोलन के पंजाब से बाहर निकलने से पहले दबा देना चाहते थे। इसके लिए अंग्रेजों ने किस प्रकार का नरसंहार किया, इसका एक उदहारण मालेरकोटला की घटना से मिलता है। 15 जनवरी 1872 को हीरा सिंह और लहिणा सिंह के जत्थे ने मालेरकोटला पर धावा बोल दिया। यहां के परेड ग्राउंड में अंग्रेजों ने इन वीरों से मुकाबला करने के लिए 9 तोपों को मंगाया था।

अंग्रेजों ने किस प्रकार यहां अत्याचारों की हर सीमा को पार कर दिया, इसको समझने के लिए हमें जत्थे के साथ चल रहे 12 वर्षीय बच्चे बिशन सिंह के बलिदान का ध्यान करना होगा। अंग्रेजों ने उसके सर को धड़ से अलग कर दिया। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसके अंदर भी वही देशभक्ति थी, जो अन्य सिख वीरों में थी। सिखों में वीरता की कोई कमी नहीं थी। वो किसी भी बलिदान के लिए सदैव आगे रहते थे, इसके बाद भी यह आंदोलन विफल हो गया। इसके पीछे का एक कारण यह समझ में आता है कि अंग्रेजों से लम्बे समय तक संघर्ष कर पूर्ण स्वतंत्रता किस प्रकार प्राप्त की जाए, इस दिशा में विचार नहीं किया गया। जो भी रणनीति बनी, वो तात्कालिक परिस्थित को ही ध्यान में रखकर तय की गई। उसके दूरगामी परिणामों पर मंथन ही नहीं हुआ।

वासुदेव बलवंत फड़के का मुक्ति संग्राम

जैसा कि हम पहले भी यह बता चुके हैं कि समय-समय पर देश के अलग-अलग भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष होते रहे। ऐसा ही एक मुक्ति संग्राम महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में चलाया गया था। वासुदेव का जन्म 4 नवंबर 1845 को हुआ था। वो बहुत कम आयु में ही अंग्रेजों के किसानों पर हो रहे अत्याचारों से व्यथित होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उनका मानना था कि अंग्रेजों को देश से निकालकर यहां स्वराज्य स्थापित करने के बाद ही भारतीयों को राहत मिल पायेगी। इसके लिए उन्होंने सशस्त्र आंदोलन को चुना। फड़के छापामार युद्ध के सहारे अंग्रेजों पर हमले करते और उन्हें बड़ी हानि पहुंचा कर फिर गायब हो जाते। उन्होंने इस प्रकार के हमलों के लिए रामोशी के नाम से संगठन बनाकर नाईक, धनगर, कोली और भील आदि जातियों के लोगों को अपने साथ लिया था। इस मुक्ति संग्राम का परिणाम यह हुआ कि कुछ दिनों तक पुणे नगर उनके कब्जे में आ गया था। अंग्रेजों को यह पता चल चुका था कि वासुदेव बलवंत फड़के को युद्ध में हराना संभव नहीं है। इसलिए अंग्रेजों ने 1879 को बीजापुर में सोते समय पकड़कर उन्हें काला पानी की सजा सुना दी। यहां अंग्रेजों ने फड़के को इतने कष्ट दिए कि उन्हें 17 फरवरी 1883 वीरगति प्राप्त हुई।

 

फोटो साभार : इंडिया टाइम्स

 

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