– डॉ. घनश्याम बादल
कबीर कौन हैं यह बताने की जरूरत नहीं है । कबीर को जानने और चाहने वाले जानते हैं कि कबीर एक अक्खड़, फक्कड़, अलमस्त, संत, साहित्यकार और समाज सुधारक ही नहीं अपितु सचमुच में ‘कबीर’ यानी महान हैं । कबीर अपने समय के ही नहीं अपितु सार्वकालिक ऐसे कवि हैं जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है । उनका जन्म भी चमत्कार है और मरण भी ।
कबीर साहित्य के ऐसे चमत्कार हैं जो ‘मसि , कागद’ को छूते भी नहीं हैं, क़लम को हाथ भी नहीं लगाते हैं और फिर भी इतना और ऐसा कुछ कह जाते हैं कि दुनिया दांतो तले उंगली दबाने को बाध्य हो जाती है । कबीर भले ही पाठशाला नहीं गए हों भले ही उन्हें ‘आखरज्ञान’ नहीं रहा हो पर जीवन की पाठशाला में उन्होंने ऐसे सूत्र पढ़े और गढ़े हैं कि उन्हें पढ़कर हजारों पोथी पढ़ने वाले पंडित भी नि:शब्द हो जाते हैं।
कबीर धर्म को राह दिखाते हैं तो पोंगा पंछियों को आइना । धर्म के नाम पर पाखंड कभी न सहते हैं और न हीं सहने को कहते हैं । कबीर केवल उपदेश देते ही नहीं हैं अपितु उन्हें अपने जीवन में उतारते भी हैं । दुनिया भर से सम्मान प्राप्त करने के बाद भी वे खुद को जुलाहा ही मानते हैं। वें केवल कपड़ा ही नहीं बुनते अपितु सर्वहितकारी साहित्य का ऐसा ताना-बाना भी बुनते हैं जिसमें शब्द लाघव नहीं, लफ्फाजी नहीं, कला पक्ष की कलाबाजी नहीं अपितु खरी – खरी बातें हैं।
हिन्दी साहित्य की चर्चा कबीर के बिना पूरी नहीं होती है । कबीर हिन्दी सहित्य की वह अजस्र नदी है जो न जाने कहां से आती है और कहां तक जाती है । पर अपने पीछे वह जो हरा – भरा उद्यान छोड़ कर जाती है उसकी खुश्बू , उसके फल , फूल उनके बहुत ही समर्थ और सक्षम होने का जीवंत प्रमाण है । बाबा कहें या संत, अल्हड़ कहें या मस्तमौला, अपढ़ कहें या गुणी, कवि कहें या भक्त हर रूप में कबीर अतुलनीय और अनुपम हैं। कबीर की तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती है । उन्होंने जिस अंदाज में दोहे को अपनाया , वह मात्रा व वज़न की दृष्टि से भले ही छंदशास्त्र के अनुरूप न हो पर जो बात कबीर इस 24 मात्राओं के छंद में कह गए अन्य कोई नहीं कह पाया । किसी के भी दोहे भाव के स्तर पर कबीर के आगे नहीं ठहरते हैं , उनका बेलाग, बेलौस अंदाज बिना मानकों की परवाह किये वह कह जाता है जो उस निरक्षर जौलाहे को देखकर कोई अंदाज तक नहीं लगा सकता ।
‘मसि कागद’ से दूर, ‘कलम गह्यो नहीं हाथ’ की आत्मोक्ति करने वाले कबीर जब कुछ कहते हैं तो चमत्कार होता चला जाता है ।नीरु नीमा के घर पले बढ़े जरुर पर किसने कबीर को जाया, कौन उनके माता पिता रहे यह आज भी वाद विवाद का ही विषय है । यहां तक कि उनके जन्म की तिथि तक पर एकमत होना मुश्किल हो जाता है । कोई उन्हे काशी में जन्म लेते बताता है तो कोई लहरतारा तालाब के पास मिलने के सबूत देता है । 1398 को भी कबीर की निश्चित जन्मतिथि मानने या न मानने के आधे- अधूरे सबूत हैं लेकिन कबीर के स्वामी रामानंद के शिष्ष्य बनने की कहानी जरुर पुष्ट है ।
अब कबीर ने दोहा, सबद, रमैनी, साखी ,सोरठा जैसे सारे छंद इस खूबी से अपनाये कि उनके अपढ़ होने पर यकीन पहीं होता है , कबीर भले ही किसी पाठशाला न गए हों पर जीवन की पाठशाला में उन्होन जितना ‘गुना’ लगता है उतना आम आदमी तो कई जन्म में भी नहीं गुन पाता है ।बिना शाब्दिक चतुराई का सहारा लिये कबीर ने जीवन के सार को निचोड़ डाला है ।
वें गरीब के साथ खड़े रहते हैं और पोगापंथी धर्माचार्यों पर कसकर प्रहार करते हैं । वें मूर्ति पूजा की सारहीनता सिद्ध करते हुए बेझिझक कह देते हैं – पाथर पूजे हरि मिलें , तो मैं पूजूं पहार,
कबीर न मंदिर के हैं और न ही मस्जिद के , वें न दिखावे में विश्वास करते न डरावे में , उन्हे न जप ,तप , व तिलक तथा छापा लुभाता है और न ही मुल्लाओं का मस्जिद पर चढ़कर अजान लगाना वें तो साफ – साफ कहते हैं:-
जप माला छापा तिलक , सरे न एको काम ,
कबीर यदि हिन्दू धर्म के दिखावे को लताड़ते हैं तो बख्शते मुसलिम धर्म को भी नहीं , देखिए ,कांकर पाथर जोड़िके , मस्जिद लई चिनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे , बहरा भया खुदाय ? वें माला फिराने में नहीं अपितु मन को बुराईयों से फिराने में यकीन करने वाले सुघारक व उपदेशक हैं तभी तो पूरे आत्मविश्वास के साथ कह देते हैं – माला फेरत जुग भया , गया न मन का फेर ,
संसार के दोमुंहेपन से कबीर आजीवन त्रस्त रहे , वें संसार व उसकी प्रवृत्तियों तो अच्छी तरह से जानते हैं , वें जानते हैं संसार न सच से संतुष्ट होता है और न ही सच उसे सुहाता है , वें भली भांति समझते हैं कि ये जग इस या उस बहाने से बस अहित ही करने में रुचि लेता है , उसे दूसरे के दोष अच्छी तरह दिख जाते हैं पर दूसरे की पीड़ा नहीं ।
कबीर के काव्य में ‘राम’ का बार – बार जिक्र आता है, पर कबीर के राम सगुण ‘राम’ नहीं हैं , वें न तुलसी के राम जैसे हैं और न ही सूर के कृष्ण जैसे उनके राम तो घट -घट व्यापी हैं जो न दृश्य हैं, न ही स्पृश्य वें कैसे हैं स्वयं देखिये पुहुप बास ते पातरो , ऐसो तत्त अनूप ।
कबीर अपने ही फक्कड़ अंदाज में शोषण के खिलाफ एक चेतावनी देते हैं:-निर्बल को न सताईये , जाकी मोटी हाय ,मुई खाल की स्वांस सो , लौह भस्म हो जाय ।
वास्तव में कबीार का सानी कोई दूसरा है ही नहीं , वजह भी साफ है वें अक्खड़ हैं ,फक्कड़ हैं , मस्तमौला हैं ,उन्हे न किसीकी चिन्ता है, न डर। वें अंदर और बाहर से एक जैसे हैं , न उनके मन में मैल है और न ही वें केवल पर उपदेशक हैं ,वें जो औरों से चाहते हैं उसे खुद पर भी लागू करते हैं इसीलिए मरने से पहले काशी छोड़ कर मगहर चले जाते हैं।
कबीर तन रूपी चदरिया को बिना मैली किये ही धर देने वाले संत हैं । कबीर के बारे में कितना भी कहा जाए कम ही रहेगा । बस, इतना ही कहना पर्याप्त है कबीर कबीर हैं बस न कम न ज्यादा ।
लेखक वरिष्ठ कबीर साहित्य के अध्येता हैं
नोट : लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से मातृभूमि समाचार का सहमत होना आवश्यक नहीं है.