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आर्थिक क्षेत्र में भी राष्ट्रीयता का भाव होना आवश्यक

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– प्रहलाद सबनानी

श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी का जन्म 10 नवम्बर, 1920 को, दीपावली के दिन, महाराष्ट्र के वर्धा जिले के आर्वी नामक ग्राम में हुआ था। श्री दत्तोपंत जी के पित्ताजी श्री बापूराव दाजीबा ठेंगड़ी, सुप्रसिद्ध अधिवक्ता थे, तथा माताजी, श्रीमती जानकी देवी, गंभीर आध्यात्मिक अभिरूची से सम्पन्न थी। उन्होंने बचपन में ही अपनी नेतृत्व क्षमता का आभास करा दिया था क्योंकि मात्र 15 वर्ष की अल्पायु में ही, आप आर्वी तालुका की ‘वानर सेना’ के अध्यक्ष बने तथा अगले वर्ष, म्यूनिसिपल हाई स्कूल आर्वी के छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये थे। आपने बाल्यकाल से ही अपने आप को संघ के साथ जोड़ लिया था और आपने अपने एक सहपाठी और मुख्य शिक्षक श्री मोरोपंत जी पिंगले के सानिध्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्गों का तृतीय वर्ष तक का प्रशिक्षण कार्य पूर्ण कर लिया। आपके वर्ष 1936 से नागपुर में अध्यनरत रहने तथा श्री मोरोपंत जी से मित्रता के कारण आपको परम पूजनीय डॉक्टर जी को प्रत्यक्ष देखने एवं सुनने का अनेक बार सौभाग्य प्राप्त हुआ और आगे चलकर आपको परम पूजनीय श्री गुरूजी का भी अगाध स्नेह और सतत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। दिनांक 22 मार्च 1942 को संघ के प्रचारक का चुनौती भरा दायित्व स्वीकार कर आप सुदूर केरल प्रान्त में संघ का विस्तार करने के लिए कालीकट पहुंच गए थे।

श्री दत्तोपंत जी बचपन में ही संघ के साथ जुड़ गए थे अतः आपके व्यक्तित्व में राष्ट्रीयता की भावना स्पष्ट रूप से झलकती थी। आपके व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए श्री भानुप्रताप शुक्ल जी लिखते हैं कि “रहन–सहन की सरलता, अध्ययन की व्यापकता, चिन्तन की गहराई, ध्येय के प्रति समर्पण, लक्ष्य की स्पष्टता, साधना का सातत्य और कार्य की सफलता का विश्वास, श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी का व्यक्तित्व रूपायित करते हैं।” चूंकि श्री दत्तोपंत जी मजदूर क्षेत्र से सम्बंधित रहे थे अतः आपको वर्ष 1969 में भारत के एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में रूस एवं हंगरी जाने का मौका मिला। यह यात्रा आपके लिए साम्यवाद के वास्तविक स्वरूप का बारीकी से अध्ययन करने का एक अच्छा अवसर साबित हुई। इस यात्रा के बाद आपने अनुभव किया कि साम्यवादी विचारधारा में खोखलापन है एवं यह कई अन्तर्विरोधों से घिरी हुई है। हालांकि उस समय दुनिया के कई देशों में साम्यवाद अपनी बुलंदियों को छू रहा था, परंतु श्री दत्तोपंत जी ने उसी समय पर बहुत आत्मविश्वास के साथ कहा था कि आगे आने वाले समय में साम्यवाद अपने अन्तर्विरोधों के कारण स्वतः ही समाप्त हो जाएगा इसके लिए किसी को किसी प्रकार के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आज परिणाम हम सभी के सामने है।

इसी प्रकार आपकी आर्थिक दृष्टि भी बहुत स्पष्ट थी। आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में साम्यवाद एवं पूंजीवाद दोनों ही विचारधाराएं भौतिकवादी हैं और इन दोनों ही विचारधाराओं में आज तक श्रम एवं पूंजी के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाया है। इस प्रकार, श्रम एवं पूंजी के बीच की इस लड़ाई ने विभिन्न देशों में श्रमिकों का तो नुकसान किया ही है साथ ही विभिन्न देशों में विकास की गति को भी बाधित किया है। आज पश्चिमी देशों में उपभोक्तावाद के धरातल पर टिकी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं पर भी स्पष्टतः खतरा मंडरा रहा है। 20वीं सदी में साम्यवाद के धराशायी होने के बाद एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि साम्यवाद का हल पूंजीवाद में खोज लिया गया है। परंतु, पूंजीवाद भी एक दिवास्वप्न ही साबित हुआ है और कुछ समय से तो पूंजीवाद में छिपी अर्थ सम्बंधी कमियां धरातल पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी है। पूंजीवाद के कट्टर पैरोकार भी आज मानने लगे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के दिन अब कुछ ही वर्षों तक के लिए सीमित हो गए हैं और चूंकि साम्यवाद तो पहिले ही पूरे विश्व में समाप्त हो चुका है अतः अब अर्थव्यवस्था सम्बंधी एक नई प्रणाली की तलाश की जा रही है जो पूंजीवाद का स्थान ले सके। वैसे भी, तीसरी दुनियां के देशों में तो अभी तक पूंजीवाद सफल रूप में स्थापित भी नहीं हो पाया है।

धरातल पर अर्थ के क्षेत्र में हम आज जो उक्त वास्तविकता देख रहे हैं, यह श्री दत्तोपंत जी की दृष्टि ने अपने जीवनकाल में बहुत पहिले ही देख ली थी। इसी कारण से आपने निम्न तीन विषयों पर डंकेल प्रस्तावों का गहराई से अध्ययन करने के पश्चात इनका न केवल डटकर विरोध किया था बल्कि आपने इसके विरुद्ध देश में एक सफल जन आंदोलन भी खड़ा किया। आपका स्पष्ट मत था कि बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का व्यापार, निवेश सम्बन्धी उपक्रमों का व्यापार एवं कृषि पर करार सबंधित डंकेल प्रस्ताव भविष्य में विकासशील देशों के लिए गुलामी का दस्तावेज साबित होंगे क्योंकि यह विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए आर्थिक साम्राज्यवाद ला सकते हैं एवं इससे विकासशील देशों की संप्रभुता संकट में पड़ जाएगी। दरअसल वर्ष 1980 से ही श्री दत्तोपंत जी ने विकसित देशों के साम्राज्यवादी षड्यंत्रों से भारत को आगाह करना प्रारम्भ किया था। आपका स्पष्ट मत था कि विश्व बैंक, अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं इसी प्रकार की अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से विकसित देशों द्वारा विकासशील एवं अविकसित देशों का शोषण किया जा सकता है क्योंकि इस प्रकार के संस्थानों पर विकसित देशों का पूर्ण कब्जा रहता है। श्री दत्तोपंत जी का उक्त चिंतन भी सत्य होता दिखाई दे रहा है क्योंकि अभी हाल ही में चीन द्वारा श्रीलंका, पाकिस्तान एवं अन्य कई देशों को ऋण के जाल में फंसाकर इन देशों के सामरिक महत्व वाले बंदरगाहों आदि पर कब्जा करने का प्रयास किया गया है।

इन्ही कारणों के चलते श्री दत्तोपंत जी ने आर्थिक क्षेत्र में साम्यवाद एवं पूंजीवाद के स्थान पर राष्ट्रीयता से ओतप्रोत एक तीसरे मॉडल का सुझाव दिया था। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों विचारधाराओं को, भौतिकवादी विचार दर्शन पर आधारित होने के चलते, आपने अस्वीकार कर दिया था एवं आपने हिन्दू विचार दर्शन के आधार पर “थर्ड वे” का रास्ता सुझाया। अर्थात, हिन्दू जीवन मूल्यों के आधार पर ही आर्थिक व्यवस्था के लिए तीसरा रास्ता निकाला था। पाश्चात्य आर्थिक प्रणाली भारतीय परम्पराओं के मानकों पर खरी नहीं उतरती है। भारत में तो हिंदू अर्थव्यवस्था ही सफल हो सकती है। आप अपने उद्भोधनों में कहते थे कि कि समावेशी और वांछनीय प्रगति और विकास के लिए एकात्म दृष्टिकोण बहुत जरूरी है। वर्तमान में दुनियाभर में उपभोक्तावाद जिस आक्रामकता से बढ़ रहा है, उससे आर्थिक असमानता चरम पर है। इसके समाधान के लिए आपने हिंदू जीवन शैली और स्वदेशी को विकल्प बताया। आपका मत था कि हमें अपनी संस्कृति, वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य के लिए आकांक्षाओं के आलोक में प्रगति और विकास के अपने माडल की कल्पना करनी चाहिए। विकास का कोई भी विकल्प जो समाज के सांस्कृतिक मूल को ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया हो, वह समाज के लिए लाभप्रद नहीं होगा।

श्री दत्तोपंत जी ने सनातन हिंदू धर्म के अधिष्ठान पर राष्ट्रवादी विचार प्रवाह को सुपरिभाषित करने का महान कार्य भी सम्पन्न किया। आपने वर्ष 1955 में भारतीय मजदूर संघ, वर्ष 1979 में भारतीय किसान संघ, वर्ष 1983 में सामाजिक समरसता मंच एवं वर्ष 1991 में स्वदेशी जागरण मंच जैसे राष्ट्रवादी संगठनों का निर्माण राष्ट्र के सक्षम एवं समर्थ प्रहरी संगठनों के रूप में किया। ये सभी संगठन आगे चलकर आधुनिक राजनीति की अपर्याप्तता को पूर्ण करने का एक सशक्त माध्यम बने। दिनांक 14 अक्टोबर 2004 को पुणे में, श्री दत्तोपंत जी को महानिर्वाण प्राप्त हुआ। आपने अपने जीवन काल में लगभग 200 से अधिक पुस्तकें लिखी, सैकड़ों की संख्या में आपके  प्रतिवेदन प्रकाशित हुए तथा हजारों की संख्या में आपके द्वारा लिखित आलेख पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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